Home Success story बिहार के सॉफ्टवेयर मास्टर के सफलता की कहानी – अमित कुमार दास

बिहार के सॉफ्टवेयर मास्टर के सफलता की कहानी – अमित कुमार दास

बिहार के सॉफ्टवेयर मास्टर के सफलता की कहानी - अमित कुमार दास
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पैसो की कमी के चलते रस्ते बदलते लोगों का सफर में टकराना आम बात है| लेकिन मामूली-सी रकम के साथ अपने घर को छोड़ कर बड़े शहर की और रुख करने के लिए हिम्मत,ललक और जूनून चाहिए होता है| एक ऐसी ही मिसाल पेश की है, अमित कुमार दास ने| बिहार के छोटे से कस्बे से निकल कर विदेश तक पहुंचना युवाओं को प्रेरित करने का पूरा दम रखता है|

बिहार अररिया जिले के फ़ारबिसगंज कस्बे में रहनेवाले एक किसान परिवार में अमित कुमार दास का जन्म हुआ| परिवार के सभी लड़के बड़े होकर अपने घरों की खेती में हाथ बटांया करते थे| मगर अमित इस परंपरा को आगे नहीं बढ़ाना चाहते थे| वह एक इंजीनियर बनने का सपना देखते थे, लेकिन परिवार की आर्थिक हालत ऐसी नहीं थी कि इंजीनियरिंग कि पढ़ाई का खर्च उठा सके| जैसे-तैसे अमित ने सरकारी स्कूल से पढ़ाई पूरी की और उसके बाद पटना के एक कॉलेज से साइंस स्ट्रीम से 12वीं की परीक्षा पास की|

12वीं तक आते-आते एमी के सामने सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक मुशिकलों को हल करने की थी| ऐसे में उनके दिमाग में मछली पालन से लेकर फसल का उत्पादन दोगुना करने के लिए ट्रैक्टर खरीदने जैसे ख्याल आने लगे| लेकिन जब पता लगा कि इसके लिए कम से कम 25000 रूपए कि जरूरत होगी, तो उन्हें अपना सपना दिल में पक्का हो चूका था|

परिवार की माली हालत सुधारने का जब कोई विकल्प सामने नहीं आया, तो अमित ने खुद को उस स्तिथि से दूर किया| सिर्फ 250 रूपए लेकर वे दिल्ली की और रवाना हो गए| दिल्ली पहुंच कर अमित को जल्द ही अहसास हो गया कि वह इंजीनियरिंग कि डिग्री का खर्च नहीं उठा पायंगे| ऐसे में वह पार्टटाइम टुइशनस लेने लगे| साथ ही,उन्हें दिल्ली विश्विधालय से बीए कि पढ़ाई शुरू कर दी|

अमित कुमार दास

पढ़ाई के दौरान अमित को महसूस हुआ कि उन्हें कंप्यूटर सीखना चाहिए| इसी मकसद के साथ वे दिल्ली के एक प्राइवेट कंप्यूटर ट्रेनिंग सेंटर पहुंचे| सेंटर कि रिसेप्निशस्ट ने जब अमित से अंग्रेजी में सवाल किये, तो वह जवाब में कुछ नहीं बोल पाए,क्योकि अंग्रेजी में भी उनके हाथ तंग थे|

रिसेप्निशस्ट ने उन्हें प्रवेश देने से इंकार कर दिया| उदास मन से लौट रहे अमित के चेहरे पर निराशा देख कर बस में बैठे एक यात्री ने उनकी उदासी का कारन जानना चाहा| वजह का खुलासा हुआ तो उसने अमित को इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स करने का सुझाव दिया| अमित को यह सुझाव अच्छा लगा और बिना देर किए तीन महीने का कोर्स ज्वाइन कर लिया|

कोर्स पूरा होने के बाद अमित में एक नया आत्मविश्वास जाग चूका था| उसी आत्मविश्वास के साथ अमित फिर से कंप्यूटर ट्रेनिंग इंस्टीटुडे पहुंचे और प्रवेश पाने में सफल हो गए| अब अमित को दिशा मिल गई थी| छह महीने के कंप्यूटर कोर्स में उन्होंने टॉप किया| अमित की इस उपलब्धि को देखते हुए इंस्टिट्यूट ने उन्हें तीन वर्ष का प्रोग्राम ऑफर किया| प्रोग्राम पूरा होने पर इंस्ट्यूट ने उन्हें फैकल्टी के तौर पर नियुक्त कर लिया| वहां पहली सैलरी के रूप में उन्हें 500 रूपए मिले|

धीरे-धीरे समय बदला और अमित की कंपनी को प्रोजेक्ट मिलने लगे| अपने पहले प्रोजेक्ट के लिए उन्हें 5000 रूपए मिले| अमित अपने संघर्ष के बारे में बताते है कि लैपटॉप खरीदने की क्षमता नहीं थी, इसलिए क्लाइंट्स को अपने सॉफ्टवेयर दिखने के लिए वे पब्लिक बसों में अपना सीपीयू साथ ले जाया करते थे| इसी दौरान उन्होंने माइक्रोसॉफ्ट का प्रोफेशनल एग्जाम पास किया और इआरसिस नामक सॉफ्टवेयर डेवलप किया और उसे पेटेंट भी करवाया|

‘Isoft ‘ सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी ने कदम दर क़दम आगे बढ़ते हुए तरक्की की| आज उसने ऐसे मुकाम को छू लिया, जहां वह 200 से ज्यादा कर्मचारियों और दुनिया भर में 40 क्लाइंट्स के साथ कारोबार कर रही है| इतना ही नहीं 150 करोड़ रूपए के सालाना टर्नओवर की कंपनी के ऑफिस सिडनी के अलावा, दुबई,दिल्ली और पटना में भी स्थित है|

इस उचाई पर पहुंचने के बाद भी अमित कुमार दास समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाना नहीं भूले थे| वर्ष 2009 में पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने कुछ ऐसे करने का सोचा,  जिस पर किसी भी पिता को गर्व हो| कहीं-न-कहीं फ़ारबिसगंज में एक कॉलेज खोलने की प्रेरणा दी|
अमित ने वर्ष 2010 में यहां कॉलेज स्थापित किया और उसका नाम पिता मोती लाल दास के पर रखा-मोती बाबू इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी| उच्च शिक्षा प्राप्त करके कुछ बनने का सपना देखनेवाले बिहार के अररिया जिले के युवाओं के लिए इससे अच्छा उपहार कोई और नहीं हो सकता था| 

Image Source:- www.google.com


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